Thursday 22 September 2011

तेरे फूलों से भी प्यार


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[अमृत  और  ज़हर  दोनों  हैं  सागार  में  एक  साथ

मंथन  का  अधिकार  है  सबको,फल  प्रभु  तेरे  हाथ ]

तेरे  फूलों  से  भी  प्यार

तेरे  काँटों  से  भी  प्यार

जो  भी  देना  चाहे  दे  दे  करतार

दुनिया  के  तारण  हार

तेरे  फूलों  से  भी  प्यार ............

चाहे  सुख  दे  या  दुःख , चाहे  ख़ुशी  दे  या  ग़म  

मालिक  जैसे  भी  रखेगा  वैसे , रह  लेंगे  हम

मालिक  रह  लेंगे  हम

चाहे  हंसी  भरा  संसार  दे , या  आंसुओं  की  धार

जो  भी  देना  चाहे  दे  दे  करतार

दुनिया  के  तारण  हार

तेरे  फूलों  से  भी  प्यार ............

हम  को दोनों  हैं  पसंद , तेरी  धुप  और  छाँव

दाता  किसी भी  दिशा  में  ले  चल, ज़िन्दगी  की  नाव

ले  चल  ज़िन्दगी  की  नाव

चाहे  हमें  लगा  दे  पार , डूबा  दे  चाहे  हमें  मंझधार

जो  भी  देना  चाहे  दे  दे  करतार

दुनिया  के  तारण  हार

तेरे  फूलों  से  भी  प्यार ............


मीरा मगन भई

    
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मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।।

सांप पिटारा राणा भेज्या मीरा हाथ दिया जाय।

न्हाय धोय जब देखन लागी सालिगराम ग पाय।।

जहरका प्याला राणा भेज्या इम्रत दिया बनाय।

न्हाय धोय जब पीवन लागी हो ग अमर अंचाय।।

सूली सेज राणा ने भेजी दीज्यो मीरा सुवाय।

सांझ भ मीरा सोवण लागी मानो फूल बिछाय।।

मीरा के प्रभु सदा सहाई राखे बिघन हटाय।

भजन भाव में मस्त डोलती गिरधर पर बलि जाय।।७।।


दर्शन दो घनश्याम नाथ


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दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे..
मन मंदिर में ज्योत जला दो घट घट वासी  रे...

मंदिर मंदिर मूरत तेरी फिर भी न दीखे सूरत तेरी .
युग बीते ना आई मिलन की पूरनमासी रे ..
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरि अँखियाँ प्यासी रे ..

द्वार दया का जब तू खोले पंचम सुर में गूंगा बोले .
अंधा देखे लंगड़ा चल कर पँहुचे काशी रे ..
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरि अँखियाँ प्यासी रे ..

पानी पी कर प्यास बुझाऊँ नैनन को कैसे समजाऊँ .
आँख मिचौली छोड़ो अब तो घट घट वासी रे ..
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरि अँखियाँ प्यासी रे ..

द्वार पे सुदामा करीब आगया है.


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देखो देखो यह गरीबी,यह गरीबी कहा ले,

कृष्ण के द्वार पे बिस्वास लेके आया हूँ,

मेरे बचपन का यार है मेरा श्याम,

यह ही सोच कर में आश कर के आया हूँ.

अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो-ऊऊ….

अरे द्वारपालों उस कन्हैया से कह दो,

के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.

के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.

हा… भटकते भटकते ना जाने कहा से,

भटकते भटकते ना जाने कहा से,

तुम्हारे महल के करीब आगया है.

तुम्हारे महल के करीब आगया है.

ओऊ…अरे द्वारपालों उस कन्हैया से कह दो,

के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.

के द्वार पे सुदामा करीब आगया है.

ना सरपे है पगरी ना तन पे है जामा,

बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा..
हा…बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.

हा…बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.

ना सरपे है पगरी, ना तन पे है जामा.

बतादो कन्हैया को नाम है सुदामा.

होऊ….ना सरपे है पगरी ना तन पे है जामा,

बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.

होऊ….बातादो कन्हैया को नाम है सुदामा.

एक बार मोहन से जा कर के कहे दो,

तुम एक बार मोहन से जा कर के कहे दो,

के मिलने सखा पद नसीब आगेया है

के मिलने सखा पद नसीब आगेया है.

अरे द्वारपालों कन्हैया से कह दो,

के द्वार पे सुदामा करीब आगेया है.

के द्वार पे सुदामा करीब आगेया है.

सुनते ही दौरे चले आये मोहन,

लागाया गले से सुदामा को मोहन.

हा…लागाया गले से सुदामा को मोहन.
लागाया गले से सुदामा को मोहन.

ओह..सुनते ही दौरे, चले आये मोहन.

लागाया गले से, सुदामा को मोहन.

हा…सुनते ही दौरे चले आये मोहन,

लागाया गले से सुदामा को मोहन

हा…लागाया गले से सुदामा को मोहन.

हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,

हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,

यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.

यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.

हुआ रुक्स्मानी को बहुत ही अचंभा,

यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.

यह मेहमान कैसा अजीब आगेया है.


Wednesday 21 September 2011

tulsi mahima


Tulsi (Basil) leaves are well known for their sacred and medicinal values.In Shri radhavallabh temple Tulsi (basil) is considered as a sakhi, thus it is never put in the bhog.If any devotee offers basil to lord it is placed in Shriji’s ‘charan kamal’ the holy feet and then given back as parsaad.
It is also believed that if one wishes to have it as parsaad, one will have to swallow it as whole. As chewing the basil is considered a sin.


तुलसी की पूजा से घर में सुख-समृद्धि और धन की कोई कमी नहीं होती। इसके पीछे धार्मिक कारण है। तुलसी में हमारे सभी पापों का नाश करने की शक्ति होती है। तुलसी को लक्ष्मी का ही स्वरूप माना गया है। विधि-विधान से इसकी पूजा करने से महालक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और इनकी कृपा स्वरूप हमारे घर पर कभी धन की कमी नहीं होती।

मनोहारिणी तुलसी समस्त पौधों में श्रेष्ठ मानी जाती हैं। इन्हें समस्त पूजन कर्मो में प्रमुखता दी जाती है साथ ही मंदिरों में चरणामृत में भी तुलसी का प्रयोग होता है तथा ऎसी कामना होती है कि यह अकाल मृत्यु को हरने वाली तथा सर्व व्याधियों का नाश करने वाली हैं परन्तु यही पूज्य तुलसी देवों को भगवान श्री गणेश की पूजा में निषिद्ध मानी गई हैं। इनसे सम्बद्ध ब्रrाकल्प में एक कथा मिलती है जो कि इसके कारण को व्यक्त करती है।
कथा — एक समय नवयौवना, सम्पन्ना तुलसी देवी नारायण परायण होकर तपस्या के निमित्त से तीर्थो में भ्रमण करती हुई गंगा तट पर पहुँचीं। वहाँ पर उन्होंने गणेश को देखा, जो कि तरूण युवा लग रहे थे। अत्यन्त सुन्दर, शुद्ध और पीताम्बर धारण किए हुए थे, आभूषणों से विभूषित थे, सुन्दरता जिनके मन का अपहरण नहीं कर सकती, जो कामनारहित, जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ, योगियों के योगी तथा जो श्रीकृष्ण की आराधना में घ्यानरत थे। उन्हें देखते ही तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी उनका उपहास उडाने लगीं। घ्यानभंग होने पर गणेश जी ने उनसे उनका परिचय पूछा और उनके वहां आगमन का कारण जानना चाहा। गणेश जी ने कहा—माता! तपस्वियों का घ्यान भंग करना सदा पापजनक और अमंगलकारी होता है। “” शुभे! भगवान श्रीकृष्ण आपका कल्याण करें, मेरे घ्यान भंग से उत्पन्न दोष आपके लिए अमंगलकारक न हो। “”
इस पर तुलसी ने कहा—प्रभो! मैं धर्मात्मज की कन्या हूं और तपस्या में संलग्न हूं। मेरी यह तपस्या पति प्राप्ति के लिए है। अत: आप मुझसे विवाह कर लीजिए। तुलसी की यह बात सुनकर बुद्धि श्रेष्ठ गणेश जी ने उत्तर दिया— ” हे माता! विवाह करना बडा भयंकर होता है, मैं ब्रम्हचारी हूं। विवाह तपस्या के लिए नाशक, मोक्षद्वार के रास्ता बंद करने वाला, भव बंधन की रस्सी, संशयों का उद्गम स्थान है। अत: आप मेरी ओर से अपना घ्यान हटा लें और किसी अन्य को पति के रूप में तलाश करें। तब कुपित होकर तुलसी ने भगवान गणेश को शाप देते हुए कहा—”कि आपका विवाह अवश्य होगा।” यह सुनकर शिव पुत्र गणेश ने भी तुलसी को शाप दिया—” देवी, तुम भी निश्चित रूप से असुरों द्वारा ग्रस्त होकर वृक्ष बन जाओगी। “
इस शाप को सुनकर तुलसी ने व्यथित होकर भगवान श्री गणेश की वंदना की। तब प्रसन्न होकर गणेश जी ने तुलसी से कहा—हे मनोरमे! तुम पौधों की सारभूता बनोगी और समयांतर से भगवान नारायण की प्रिया बनोगी। सभी देवता आपसे स्नेह रखेंगे परन्तु श्रीकृष्ण के लिए आप विशेष प्रिय रहेंगी। आपकी पूजा मनुष्यों के लिए मुक्तिदायिनी होगी तथा मेरे पूजन में आप सदैव त्याज्य रहेंगी। ऎसा कहकर गणेश जी पुन: तप करने चले गए। इधर तुलसी देवी दु:खित ह्वदय से पुष्कर में जा पहुंची और निराहार रहकर तपस्या में संलग्न हो गई। तत्पश्चात गणेश के शाप से वह चिरकाल तक शंखचूड की प्रिय पत्नी बनी रहीं। जब शंखचूड शंकर जी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त हुआ तो नारायण प्रिया तुलसी का वृक्ष रूप में प्रादुर्भाव हुआ।

Tuesday 20 September 2011

माखन चोर -


एक बार सूना घर पा कर के घनश्याम, माखन उठा के मुख में ज्यूँ धरने लगे,
बिम्ब प्रतिबिंबित उन्हीं के मणि खम्बों पर, भेदिया के मन में संदेह भरने लगे,
भेद खुला जान छांछ उन्हें भी खिलने लगे, झर झर लोचनों से अश्रु झरने लगे,
कहना न मैया से बलिया लूं तुम्हारी भैया, बार बार बिनती कन्हैया करने लगे.

इतने में आ गयीं यशोदा माता उसी ठौर, अंग अंग छांछ लिपटाये नंदलाल थे,
माखन करों से प्रतिबिम्ब को खिला रहे थे, कुंचित कुटिल कुन्तलों के बाल व्याल थे,
खम्ब में स्वरुप, रूप में छवि भरे नयन, नयनों में अश्रु, अश्रुओं में चित्रजाल थे,
मानो क्षीर सिन्धु की नहाई गन माल पर रूप भरे मोती रहे उगल मराल थे.

आया देख माता को अकस्मात् उसी ठौर, सूझी ये नवल लीला नवल किशोर को,
बिम्ब को दिखा के बोल उठे देख देख मैया, यह ढीठ घूर जो रहा है मेरी ओर को,
अभी अभी माखन चुरा के यही खा रहा था, देख व्यर्थ अश्रु से भरे हैं दृग कोर को,
पोर दाबे मुख में हंसी में तो खड़ी विभोर, क्यों नहीं पकड़ती है माखन के चोर को.

मेरे हाथ मुख में लगा ये छांछ देख कर, मैया क्या इसी ने तेरा चित्त भरमाया है,
कहूं सही बात मेरी बात मान मेरी अम्मा, अभी छीना झपटी में इसी ने लगाया है,
तुझको प्रतीति नहीं तो निहार नवनीत उसके ही पास है जो उसी ने चुराया है,
खाया कुछ, कुछ अभी हाथ में बचाया, कुछ मुख पे लगाया, कुछ भूमि पे गिराया है.



माखन चोर , नन्द किशोर


माखन चोर , नन्द किशोर, मन मोहन, घनश्याम रे
कितने तेरे रूप रे कितने तेरे नाम रे

देवकी माँ ने जनम दिया और मैया यशोदा ने पाला
तू गोकुल का ग्वाला बिंद्रा बन गया बंसरी वाला
आज तेरी बंसी फिर बाजी मेरे मन के धाम रे
कितने तेरे रूप रे कितने तेरे नाम रे

माखन चोर , नन्द किशोर, मन मोहन, घनश्याम रे
कितने तेरे रूप रे कितने तेरे नाम रे

काली नाग के साथ लड़ा तू ज़ालिम कंस को मारा
बाल अवस्था में ही तुने खेला खेल ये सारा
तेरा बचपन तेरा जीवन जैसे एक संग्राम रे
कितने तेरे रूप रे कितने तेरे नाम रे

माखन चोर , नन्द किशोर, मन मोहन, घनश्याम रे
कितने तेरे रूप रे कितने तेरे नाम रे

तुने सब का चैन चुराया ओ चितचोर कन्हैया
जाने कब घर आए देखे राह यशोदा मैया
व्याकुल राधा ढूंढे श्याम न आया हो गई शाम रे
कितने तेरे रूप रे कितने तेरे नाम रे

माखन चोर , नन्द किशोर, मन मोहन, घनश्याम रे
कितने तेरे रूप रे कितने तेरे नाम रे

Saturday 17 September 2011

kanha said in geeta about the humanbeing----


According to Shri Krishna there are two spirits that leaves in all individual bodies. One is jiva-atma (self) and other is Ishvara (Expansion of God that stays with every individual soul as guide and observer of our action and intentions). In Chapter 13 and Shloka 23 of Bhagavad-Gita it is stated by Shri Krishna:

“Yet in this body there is another, a transcendental enjoyer,
who is the Lord, the supreme proprietor,
who exists as the overseer and permitter, and
who is known as the Supersoul.”
Shri Krishna in Bhagavad-Gita said that whatever one thinks about continuously in their life due to their association with material nature and senses, at time of death the same material nature mood and sense creates desire in consciousness that migrate us to full fill those desires in another body more suitable for that mood. According to Shri Krishna material nature consists of three modes—goodness (sattva), passion (rajas) and ignorance (tamas). When person living in his ordinary life is continuously bombarded with sense impulse and desires spiritual or materialistic, it results in three type of nature in us. Some stimulus creates nature in goodness (higher understand and knowledge with energy), other stimulus create a nature in passion (strong desire to fulfill with strong longing and endure), and other stimulus creates nature of ignorance (delusion, madness, indolence).

The environment and food we eat has great impact on the nature of our consciousness. The nature of this consciousness has direct impact on our intelligence, body, and life style. Thus which ever mode of nature we continuously reinforce in our lifestyle it will become predominate at the time of death because of it continuous association by the jiva-atma. In Bhagavad-Gita it is stated by Shri Krishna:

"And whoever, at the end of his life, quits his body remembering
Me alone at once attains My nature. Of this there is no doubt."
Chapter 8, Shloka 5

"Whateve state of being one remembers when he quits his body,
O son of Kunti, that state he will attain without fail."
Chapter 8, Shloka 6

“When one dies in the mode of goodness,
he attains to the pure higher planets of the great sages”
Chapter 14, Shloka 14

“When one dies in the mode of passion,
he takes birth among those engaged in fruitive activities;
and when one dies in the mode of ignorance,
he takes birth in the animal kingdom.”
Chapter 14, Shloka 15

“The living entities in this conditioned
world are my eternal fragmental parts.
Due to conditioned life,
they are struggling very hard with six sense,
which include the mind.”
Chapter 15, Shloka 7

“The living entity in the material world carries
his different conceptions of life from one body
to another as the air carries aromas. Thus he
takes one kind of body and again quits it to take another.”
Chapter 15, Shloka 8

“The living entity, thus taking another gross body,
obtains a certain type of ear, eye, tongue,
nose and sense of touch,
which are grouped about the mind.
He thus enjoys particular set of sense objects.”
Chapter 15, Shloka 9 
As Shri Krishna stated we move from one body to another, as our desire requires. This continuous cycle can only be stopped when realizes his true self and surrender to the Ishvara (Supersoul) that is living in every aspect of this creation and sustaining it including our body.

When our body’s age causes it to decay and we leave this body to take another body (spiritual or material) we take our self in to the next life; however, because we are not self-realized most of our life we spending associating with our false self (ego – false personality). This false personality we call ego is continuously changing even in our currently life as we grow from childhood to youth, youth to adult, and adult to old age, and then to death. Even after death this false personality goes into next life, and continuous to change. In this life we all have experienced something similar where we like something or someone as child but now longer desire as adult because our false self (ego) values and needs are changed. As soon as we take another body, nature around us starts programming us using our new body’s sense and its environmental stimulus that we have to behave certain way, and the games starts again. If we are born again as human some people remember this false personality even in next life, and some forget as time removes it from our individual consciousness. Those that remember this false personality from previous life because of higher self awareness of our true self or strong impact of previous life are able to recall and communicate that to us sometime.

Many researchers have done research on reincarnation and provide many references to this concept. Dr. Ian Stevenson, founder of The Division of Perceptual Studies (DOPS) at University of Virginia has published a book on this called Twenty Case Suggestive of Reincarnation with ISBN number 9780813908724. There are many others researchers that have done this kind of research on reincarnation, but the verdict from scientific community is still out because it states that we don’t have enough studied subject. Also the subject that have been studied have some (not all) minor inaccuracy in their recalling their previous life environment like house structure, location of certain things, appearance of individual, and other minor details. Also another thing to take in to consideration is that time changes our landscape, people’s look, and even our memories due to the biasness of our desires still left in our consciousness. In the end reincarnation can be experienced by living it or by self realization of higher self and Ishvara (Supersoul). 

What is a mantra?


Most mantras starts with sound Aum (Om) followed by Gods name or prayer to God. The symbol of AUM is drawn differently in different languages but its origin is found in Ajna chakra energy center. When one seats down in comfortable position and concentrate between the two eyes (location of Ajna chakra energy center) and start to do mantra in a steady peaceful manner on daily bases, one starts to see peace, steadiness, focus, and joy emerging which leads to balanced life, higher intuition, and to clairvoyance that should lead to better understanding of God within this lifetime in this body.

Shri Krishna Mantras
Most famous Shri Krishna mantras are listed below, however there are secret mantra that only a self realized guru can give to individual that are not publicly listed. Nonetheless all mantras secret or public if done with pure consciousness and focus with devotional love to God result in the same elevation of the spirit.

Om Krishnaya Namah
I bowed down to Lord Krishna

Om Sri Krishnah Sharanam Mamah
To beloved Lord Krishna, I pray to take me under his protection and shelter.

Hare Krishna Hare Krishna
Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama
Rama Rama Hare Hare

This mantra is made from 3 words—Hare, Krishna, Rama, and their combination has different meaning depending on the meaning of Hare. Hare can be interpreted as “Hari” or “Hara”. Hari is another name of God meaning “he who removes illusion”, and Hara is another name of Radhaji (Krishna’s eternal consort or Shakti). Krishna and Rama refer to God himself, meaning “He who is All-Attractive and attracts everyone towards him.

Any of these mantras can be done with love and focus toward God will yield the same results. It is understood by wise that whatever we think about continuously we start to become. So if one continuously thinking of God we will become spiritually. Any mantra done with proper clean consciousness will finally give one the understanding to see God’s presence in every atom of this creation. Without God’s presence (God energy) nothing we see can be sustained, and God’s energy is so perfect that it lets nothing go to waste and maintains balance in everything.

Meet The 3 Purush (3 Big Bosses of Sanatan Dharma)

Aksharaitita Parbrahma Krishna
(Param Keval Gyana)
Aksharatit Bhram is the omnipotent and all powerfull Supreme Personality of Godhead Shree Krishna himself. He is the giver of consciousness to Akshar and Kshar Bhram. He is the final source of energy and lord of all. Beyond him there is no other being. He resides in his Supreme Abode Param Dham with Radha Rani and his personal associates. One can only go to Param Dham by devotional service to Supreme Personality of Godhead Shree Krishna. Once gone to Param Dham one does not come back to the material or spiritual worlds, it is the final abode of all.
Akshar Bhram
(Keval Gyana)
Akshar Bhram is in charge of creating, maintaining, and dissolving countless perishable universes (material world) and non perishable universe (spiritual world). Akshar Bhram by power vested in him by Aksharatit Bhram can create, sustain, and dissolve countless universes by his will. Akshar Bhram is the aspect of non-perishable creation.
Kshar Bhram
(Bhram Gyana)
Kshar Bhram is also called Shree Narayan. Kshar Bhram in charge of the material perishable worlds which composes of all things conscious and unconscious in 7 heavens, 7 hells, and eight coverings. Kshar Bhram power is vested in him by Akshar Bhram. Kshar Bhram is the aspect of perishable creation and he is in charge of creating, maintaining, and dissolving countless perishable universes (material world).

What Is Essence of Bhagavad Gita?


Bhagavad Gita is a universal message from Lord Shree Krishna to mankind, and it has the power to have a profound effect on person's life that truly understands it message. It explains in the simplest manner the profound secretes of Sanatan Dharma (Hinduism) to a sincere person yearning to find the answer to his or her relationship with this material world and to God, Shree Krishna the Supreme Personality of Godhead. It explains the truth of this material world, individual soul's action and bondages to it in due course of time, and the role of the Shree Krishna (God) to both. Bhagavad Gita clearly and coherently explains the nature of consciousness, the self, and the material and spiritual world.

It is the nectar of Indian spiritual wisdom, and answer to questions posed by philosophers of the world. True spiritual knowledge will free you from the bondage of material needs, and lead you to peace and happiness found in one self. False spiritual knowledge will lead you to bondage, misery, and away from your self. If one does not know what one stands for, the chances are that person will fall for (accept) ever thing. Similarly if one does not know himself, one can never claim to know Lord of his universe. Bhagavad Gita has the power to introduce one self to self, and one self to the God, Shree Krishna the Supreme Personality of Godhead. When choosing to read Bhagavad Gita it is important to make sure the translation one is reading is from a bonafide spiritual master that has learned and practiced in Science of Krishna consciousness. As a man can not server two masters, without one day having to choose one over the other; in the path of spiritual progress man not server himself if he seek to server God. One has to choose, and in life that is all we can do is choose our path. May your path be steady, clear, peacefully, and full of service to God. What ever name you may give God, we call him Lord Shree Krishna.

Who Is Krishna?


Krishna is the Supreme Personality of Godhead. The question is then why is he called Krishna? The answer is because word Krishna means “he who attracts everyone” and also because Shree Brahma the creator of the physical universe called him Krishna when he prayed to his creator for guidance in creating this physical creation. Krishna is also known as Parbrahma Krishna, Aksharaitita Krishna, Purna Purusottam, Supreme Father, Paramatama, Paramtattav, and Raj Shyma. There is no other being above and beyond Krishna. Krishna the Supreme Personality of Godhead appeared on Earth as the 8th avatar in Sanatan Dharma (Hinduism). His appearance occurred in Indian 5,000 years ago and he remained on earth for 125 years playing like a human being while establishing righteousness and dharma.

What makes the appearance of Krishna the Supreme Personality of Godhead so unique is that while all the other avatars were of Shree Vishnu, Shree Brahmaji, or Shree Sankar in Sanatan Dharma (Hinduism), the 8th avatar was of Supreme Personality of Godhead Krishna himself. Please note that Parbrahma and Brahma do not take birth through mother womb, they just appear. There are different types of avatars that can happen—Avesh, Ansha, Anshansh, Maryada, and Purna.

Avesh avatar is entering of any of the avatar into a form of certain human for certain time and certain purpose. The word Ansha means expansion of vibhuty as continual fractional power as a divine personality or form. Vibhuty is a different energy of Brahma combining to create a swaroop (form). Anshansh is an expansion of Ansha avatar. Maryada avatar is usually an expansion of Brahma. Purna avatar is the Supreme Personality of Godhead himself in his total opulence and power. All other avatars have some limitation in the opulence and power, but not the Purna avatar

Friday 16 September 2011

Divine Names Of Krishna


Lord Krishna is known by many names in the various hindu documents. Each name has its own significance. Some of the names are listed below:
  • Krishna
  • Jagannath
  • Parampurush
  • Dwarkadhish
  • Vasudev
  • Devki Nandan
  • Govinda
  • Gopal
  • Parthasarthi
  • Muralidhar
  • Mathura Naresh
  • Damodar
  • Niranjan
  • Sanatan
  • Anant
  • Ajay
  • Murari
  • KamalNath
  • Punya
  • Lila-Manush-Vigraha
  • Shrivastav Kausthuba-Dharya
  • Yudhishthira pratishthatre
  • Sarvagraha Rupine
  • Dayanidhaye
  • Sarvabhutat makaya
  • Jalakrida samashaka gopi vastra pararakaya
  • Parabrahmane
  • Barhi Barhavatamsakaye
  • Pannagashana vahanaya

Thursday 15 September 2011

जगत् में चराचर के स्वामी, दुनिया को कर्म,अकर्म का पाठ पढ़ाने वाले, गोपियों से लेकर ज्ञानियों तक सबको मंत्रामुग्ध और अपने वश में कर लेने वाले, तीनों लोकांे में एकछत्रा राज्य करने वाले, दुष्टों के भय और भक्तों के बल कृष्ण का नाम स्मरण मात्रा ही जन्म मरण के बंधन से मुक्त कर देता है। कृष्ण सचमुच कृष्ण हैं और सारी दुनियां को अपने आकर्षण में ऐसा बांधते हैं कि बंधन में बंधने वाला स्वयं ही उनके बांधे बंधन में बंधा रहना चाहता है।


कृष्ण कभी कर्मयोगी लगते हैं तो कभी छलिया, कभी उनमें भगवान के दर्शन होते हैं तो कभी वे एक साधारण से मानव नजर आने लगते हैं। कृष्ण को समझने में बड़े बडे तपस्वी त्रिलोकदर्शी, ज्ञानी जहां ‘नैति नैति‘ करने को मजबूर हो जाते हैं, वहीं अनपढ़ और गंवार समझे जाने वाले ग्वाले, गोपियां उन्हें पा जाते हैं। यदि सच कहा जाए तो कृष्ण कभी भी समझ में न आने वाले ऐसे तत्व हैं जिन्हें समझने के लिये सारे पोथे, पुस्तक, ग्रंथ अपर्याप्त रह जाते हैं और पे्रम के ढाई अक्षर से वे वश में हो जाते हैं।
कृष्ण पैदा होते ही लीला करने का दूसरा नाम हैं। उन्हे आते देख रौद्र रुप में बहने वाली यमुना स्वयंमेव ही उतर जाती है तो इसमें कोई न कोई बात तो जरुर है। कृष्ण देवकी की आठवीं संतान के रुप में जन्म लेते हैं तो यह भी एक पूर्व निर्धारित योजना ही होती है क्योंकि यदि वे ऐसा नहीं करते तो शापग्रस्त उन सात वसुओं का क्या होता जो न जाने कब से उनके जन्म लेने का इंतजार कर रहे थे और यदि वें पहली ही संतान के रुप में पैदा होकर आनन फानन में कंस का वध कर देते तो सारी दुनिया उस सुंदर ललाम लीला से वंचित ही रह जाती जिसे सुन कर आज इस मृत्युलोक के चराचर मोक्ष धाम के भागी बन जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो श्रीभगवान के चरणों में जगह पा जाते हैं।
कृष्ण बंधन भी है और मुक्ति भी। वे बांधते भी हैं और बंधते भी हैं। कृष्ण जहां अपने भक्तों को अपने आकर्षण में बांधते हैं, वहीं वे उन्हे माया मोह के बंधन से मुक्त भी करते हैं। कृष्ण ही अपने चाहने वालों को जन्म और मृत्यु के झंझटों से मुक्ति दिलाने वाले परम प्रभु हैं। वे हर कदम पर अपने चाहने वालों का पूरा पूरा ख्याल रखते हैं।
कृष्ण जहां कई्र बार लीला करते, तड़पाते सताते लगते हैं वही उचित अवसर पर वे बिना देर किये अपने भक्त की रक्षा के लिये कभी सुदर्शन चक्र्र लेकर तो कभी मान भंग होने से बचाने के लिये अपनी उंगली पर बरसों पहले बांधी गई पट्टी का चीर लिये सदैव तत्पर, सदैव हाजिर मिलते हैं यानी कृष्ण अपने भक्तों का मानभंग तो कतई ही नहीं होने देते
कृष्ण जिस तरह का आचरण करते हैं, उसे देखकर शायद ही उन्हें कोइ्र्र भगवान का दर्जा दे पाये पर फिर भी मजेदार बात यह है कि कृष्ण आज भी अपने भक्तों के बीच भगवान का दर्जा पाये हुये हैं और उन्हें इस दर्जे से शायद ही कभी कोई हटा पाये। कृष्ण अपने जन्म से ही दिव्य लगते हैं। कंस के तमाम प्रयासों के बावजूद वे न केवल कंस की पकड़ से बाहर हो जाते हैं बल्कि उसके ही घर में जाकर उसके ही राज्य में उसका वध कर डालते हैं। कृष्ण मां के रुप में आई पूतना का दूध पीकर उसे मां का सम्मान देतेे है तो उसकी दुष्प्रवृत्ति के लिये उसका वध भी करने में भी देर नहीे लगाते।
कृष्ण जहां ऋषि मुनियों को अपने रहस्य को जानने में छकाते, तड़पाते हैं, वहीं निरक्षर और भोले भाले गोकुलवासियों को, बृजवासियों को ग्वालों को बिना किसी तप जप के ही अपने दर्शन देकर उन्हे अपने धाम बुला लेते हैं।
कृष्ण मानव के रुप में भी उतना ही लुभाते हैं जितना कि ईश्वर के रुप में । उनका एक एक कार्य मन में घर कर जाता है। उनका यशोदा को रिझाना, गोपियों को तड़पाना , सुदामा की मदद करना ,विदुर के घर दुर्योधन के पकवान ठुकराकर साग रोटी खाना ,अर्जुन और दुर्योधन दोनों को ही संतुष्ट करते हुये कूटनीतिक तरीके से एक तरफ खुद को तो दूसरी तरफ अपनी सेना को दे देना कृष्ण का दोनों हाथों में लड्डू रखने की रणनीति को दर्शाता है।
कृष्ण युद्ध में साम ,दाम, दंड ,भेद सबको ही अपने प्रिय पांडवों की जीत के लिये आजमाते हैं । वहां वे न उचित देखते हैं और न अनुचित, बस एक ही लक्ष्य साधते हैं, जीत का लक्ष्य । और अंततोगत्वा उसमें सफल भी होते हैं । सच कहा जाये तो कृष्ण सफलता का ही दूसरा नाम हैं ।
कन्हैया , कृष्ण , पीताम्बर ,देवकीनंदन ,वासुदेव ,यशोदानंदन, जो मर्जी कहिये पर कृष्ण सिर्फ कृष्ण हैं । सारी दुनिया के लिये एक कभी भी खत्म न होने वाला आकर्षण । ऐसा आकर्षण ,जो हर पल हर रुप में पूरा पूरा सुख देता है । सचमुच अद्भुत और अनुपम हैं ं कृष्ण।

~~राधाकृष्ण: नि:स्वार्थ प्रेम ही पूजनीय है~~~

वैसे तो सभी रिश्ते-नातों का अपना विशेष महत्व है, सभी के अपने अलग कर्तव्य और अधिकार हैं। परमात्मा द्वारा किस परिवार में हमें जन्म दिया गया है उसी के अनुसार हमारे सभी रिश्ते-नाते निर्धारित होते हैं। जन्म से जुड़े रिश्तों के अतिरिक्त एक रिश्ता है प्रेम का। किसी से नि:स्वार्थ प्रेम का रिश्ता सदैव पूजनीय है यह संदेश दिया है श्रीकृष्ण ने। श्रीकृष्ण और राधा इस बात का उदाहरण है कि नि:स्वार्थ प्रेम हर रिश्ते से बढ़कर पवित्र और महान हैं। इसी वजह से श्रीकृष्ण की पूजा राधा के साथ ही की जाती है।
रिश्तों में माता-पिता और गुरु का स्थान ईश्वर के समान ही बताया गया है और यह लोग सदैव आदर और मान-सम्मान प्राप्त करने के अधिकारी भी हैं। इनका अनादर करने वाले से भगवान कभी प्रसन्न नहीं हो सकते। स्वयं भगवान विष्णु ने जब-जब अवतार लिया है उन्होंने माता-पिता और गुरुदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति रखने का ही संदेश दिया है। कोई भी व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक असंख्य लोगों के संपर्क में आता है। कुछ विशेष लोगों से उसे स्नेह हो जाता है, कुछ मित्र बन जाते हैं। इन सभी लोगों में किसी खास शख्स के प्रति हमारा मन नि:स्वार्थ भाव से प्रेम करने लगता है। ऐसा ही प्रेम था राधा और श्रीकृष्ण के बीच। इनका प्रेम की कोई सीमा नहीं है, दोनों ही एक-दूसरे से असीम प्रेम रखते है। इनके प्रेम में कोई स्वार्थ नहीं कोई अपेक्षा नहीं है।
गोकुल में ऐसी कोई गोपी न थी जिसे श्रीकृष्ण से प्रेम न हो। हर गोपी का प्रेम पवित्र और भक्तिपूर्ण था। सभी श्रीकृष्ण को अपने प्रियतम के रूप में ही देखती थी और श्रीकृष्ण भी सभी को वैसा ही स्नेह प्रदान करते थे। इन सभी गोपियों में राधा का स्थान सर्वोच्च है। राधा का प्रेम इतना गहरा और महान है कि उन्होंने अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण पर न्यौछावर कर दिया और अपने मन को पूरी तरह से श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दिया। श्रीकृष्ण भी राधा के प्रेम में पूरी तरह से रंग गए।
श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम की गहराई को दर्शाते कई प्रसंग हमारे धर्म ग्रंथों में दिए गए हैं। उन्हीं के अनुसार एक बार राधा से श्रीकृष्ण से पूछा- हे कृष्ण तुम प्रेम तो मुझसे करते हों परंतु तुमने विवाह मुझसे नहीं किया, ऐसा क्यों? मैं अच्छे से जानती हूं तुम साक्षात भगवान ही हो और तुम कुछ भी कर सकते हों, भाग्य का लिखा बदलने में तुम सक्षम हों, फिर भी तुमने रुकमणी से शादी की, मुझसे नहीं।
राधा की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- हे राधे, विवाह दो लोगों के बीच होता है। विवाह के लिए दो अलग-अलग व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। तुम मुझे यह बताओं राधा और कृष्ण में दूसरा कौन है। हम तो एक ही हैं। फिर हमें विवाह की क्या आवश्यकता है। नि:स्वार्थ प्रेम, विवाह के बंधन से अधिक महान और पवित्र होता है। इसीलिए राधाकृष्ण नि:स्वार्थ प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं और सदैव पूजनीय हैं।


Tuesday 13 September 2011

मुझे श्याम सुंदर की दुल्हन बना दो


आओ मेरी सखी मुझे मेहँदी लगा दो
मेहँदी लगा दो मुझे ऐसे सजा दो
मुझे श्याम सुंदर की दुल्हन बना दो

सत्संग में मेरी बात चलाई
सतगुरु ने मेरी कीनी रे सगाई
उनको बुलाके हथलेवा तो करा दो
मुझे स्याम सुंदर की दुल्हन बना दो

ऐसी पहनू चूड़ी जो कभी ना टूटे
ऐसा चुनु दूल्हा जो कबहू ना छुटे
अटल सुहाग की बिंदिया लगा दो
मुझे श्याम सुंदर की दुल्हन बना दो

ऐसी ओढूँ चुनरी जी रंग नहीं छुटे
प्रीत का धागा कबहू नहीं टूटे
आज मेरी मोतियों से माँग भरा दो
मुझे श्याम सुंदर की दुल्हन बना दो

भक्ति का सुरमा मै आँख में लगाऊगी
दुनिया से नाता तोड़ उन्ही की हो जाऊँगी
सतगुरु को बुलाके फेरे टी डलवा दो
मुझे श्याम सुंदर की दुल्हन बना दो

बांध के घुँघर में उनको रिझाऊँगी
लेके एकतारा में श्याम श्याम गाऊँगी
सतगुरु को बुला के डोली तो सजा दो
सखियों को बुला के विदा तो करा दो
मुझे श्याम सुंदर की दुल्हन बना दो

बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे


बनवारी रे
जीने का सहारा तेरा नाम रे
मुझे दुनिया वालों से क्या काम रे
झूठी दुनिया झूठे बंधन, झूठी है ये माया
झूठा साँस का आना जाना, झूठी है ये काया
ओ, यहाँ साँचा तेरा नाम रे
बनवारी रे ...
रंग में तेरे रंग गये गिरिधर, छोड़ दिया जग सारा
बन गये तेरे प्रेम के जोगी, ले के मन एकतारा
ओ, मुझे प्यारा तेरा धाम रे
बनवारी रे ...
दर्शन तेरा जिस दिन पाऊँ, हर चिन्ता मिट जाये
जीवन मेरा इन चरणों में, आस की ज्योत जगाये
ओ, मेरी बाँहें पकड़ लो श्याम रे
बनवारी रे ...

बंशी बजाके श्यामने


बंशी बजाके श्यामने दिवाना कर दिया
अपनी निगाहें नाज़से........२ मस्ताना कर दिया .
जबसे दिखाई श्यामने वो सा.म्वरी सुरतिया........२
वो सा.म्वरी सुरतिया वो मोहनी मूरतिया........२
खुद बनगये शमा मुझे परवाना कर दिया
बंशी बजाके श्यामने दिवाना कर दिया
बांकी अदासे देखा मन हरन श्यामने.....२
मन हरन श्यामने सखी चित चोर श्यामने....२
इस दिन दुनियासे मुझे बेगाना कर दिया....२
बंशी बजाके श्यामने दिवाना कर दिया
अपनी निगाहें नाज़से........२ मस्ताना कर दिया
.

आरती पूरी होने के बाद आरती क्यों लेते हैं?


ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करते हैं। ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाते हैं व अंत में आरती लेते हैं।

दरअसल आरती उतारने के पश्चात् दोनों हथेलियों को दीप की ज्योतिपर कुछ क्षण रखकर उनका स्पर्श अपने मस्तक, कान, नाक, आंखें, मुख, छाती, पेट, पेटका निचला भाग, घुटने व पैरों पर करें। इसे आरती ग्रहण करना कहते हैं। मान्यता है कि आरती के बाद दीप से निकलने वाली तरंगे जो कि गोलाकार पद्धति से गतिमान होती हैं। आरती लेने वाले जीव के चारों ओर इन तरंगों का कवच निर्माण होता है । इस कवच को तरंग कवच कहते हैं। किसी भी व्यक्ति का आरती लेते समय आरती के प्रति भाव जितना अधिक होगा, उतना ही यह कवच अधिक समय तक बना रहेगा । इससे विचारों की सात्विकता में भी वृद्धि होती है और वह ब्रह्मांड की ईश्वरीय तरंगोंको अधिक मात्रामें ग्रहण कर सकता है। इससे मन से नकारात्मक विचार तो मिटते ही हैं साथ ही बहुत पुण्य मिलता है।

कृष्ण मंदिर जाएं तो जरूर ध्यान रखें






जब भी कृष्ण भगवान के मंदिर जाएं तो यह जरुर ध्यान रखें कि कृष्ण जी कि मूर्ति की पीठ के दर्शन ना करें। दरअसल पीठ के दर्शन न करने के संबंध में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की एक कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण जरासंध से युद्ध कर रहे थे तब जरासंध का एक साथी असूर कालयवन भी भगवान से युद्ध करने आ पहुंचा। कालयवन श्रीकृष्ण के सामने पहुंचकर ललकारने लगा।

तब श्रीकृष्ण वहां से भाग निकले। इस तरह रणभूमि से भागने के कारण ही उनका नाम रणछोड़ पड़ा। जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब कालयवन भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा। इस तरह भगवान रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पिछले जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते जब कि पुण्य का बल शेष रहता है। कालयवन कृष्णा की पीठ देखते हुए भागने लगा और इसी तरह उसका अधर्म बढऩे लगा क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का वास होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है। जब कालयवन के पुण्य का प्रभाव खत्म हो गया कृष्ण एक गुफा में चले गए। जहां मुचुकुंद नामक राजा निद्रासन में था। मुचुकुंद को देवराज इंद्र का वरदान था कि जो भी व्यक्ति राजा को निंद से जगाएगा और राजा की नजर पढ़ते ही वह भस्म हो जाएगा। कालयवन ने मुचुकुंद को कृष्ण समझकर उठा दिया और राजा की नजर पढ़ते ही राक्षस वहीं भस्म हो गया।

अत: भगवान श्री हरि की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए क्योंकि इससे हमारे पुण्य कर्म का प्रभाव कम होता है और अधर्म बढ़ता है। कृष्णजी के हमेशा ही मुख की ओर से ही दर्शन करें। यदि भूलवश उनकी पीठ के दर्शन हो जाते हैं और भगवान से क्षमा याचना करनी चाहिए। शास्त्रों के अनुसार इस पाप से मुक्ति के लिए कठिन चांद्रायण व्रत करना होता है। इस व्रत के कई नियम बताए गए हैं। जैसे-जैसे चंद्र घटता जाता है ठीक उसी प्रकार व्रती को खान-पान में कटौती करना होती है और अमावस्या के दिन निराहार रहना पड़ता है। अमावस्या के बाद जैसे-जैसे चांद बढ़ता है ठीक उसी प्रकार खान-पान में बढ़ोतरी की जानी चाहिए और पूर्णिमा के बाद यह व्रत पूर्ण हो जाता है। ऐसा करने पर भक्त की आराधना से श्री हरि अतिप्रसन्न होते हैं और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं।

गर्भ संहिता में श्रीकृष्ण के बचपन से लेकर राधा से विवाह तक की पूरी कहानी का वर्णन है। कृष्ण के लए ब्रह्म ने कितना त्याग किया इसकी भी पूरी जानकारी इसी गर्भ संहिता में मिल जाएगी।


गर्ग संहिता में भगवान श्रीकृष्ण और उनकी लीलाओं का सबसे पौराणिक आधार का वर्णन किया गया है। गर्ग संहिता के सोलहवें अध्याय में राधा और कृष्ण के विवाह की कथा है। कथा की शुरूआत श्रीकृष्ण के बाल अवस्था से होती है। जब कृष्ण की उम्र महज दो साल सात महीने थी। एक बार नंद बाबा बालक कृष्ण को लेकर अपने गोद में खिला रहे हैं। उनके साथ दुलार करते हुए वो वृंदावन के इस भांडीर वन में आ जाते हैं। 

श्रीकृष्ण के लिए वन पहुंचीं राधा

पुष्कर। इस बीच एक बड़ी ही अनोखी घटना घटती है। अचानक तेज हवाएं चलने लगती हैं। बिजली कौंधने लगती है। देखते ही देखते चारों ओर अंधेरा छा जाता है। और इसी अंधेरे में एक बहुत ही दिव्य रौशनी आकाश मार्ग से नीचे आती है।
नंद जी समझ जाते हैं कि ये कोई और नहीं खुद राधा देवी हैं जो कृष्ण के लिए इस वन में आई हैं। वो झुककर उन्हें प्रणाम करते हैं। और बालक कृष्ण को उनके गोद में देते हुए कहते हैं कि हे देवी मैं इतना भाग्यशाली हूं कि भगवान कृष्ण मेरी गोद में हैं और आपका मैं साक्षात दर्शन कर रहा हूं।
भगवान कृष्ण को राधा के हवाले करके नंद जी घर वापस आते हैं तबतक तूफान थम जाता है। अंधेरा दिव्य प्रकाश में बदल जाता है और इसके साथ ही भगवान भी अपने बालक रूप का त्याग कर के किशोर बन जाते हैं।

ब्रह्मा जी का कृष्ण के प्रति स्नेह

पुष्कर। भांडीर वन का रिश्ता कृष्ण की गाथा से बहुत करीब से जुड़े़ हैं। कृष्ण की किशोरावस्था और राधा का कृष्ण के प्रति भाव को देखकर ब्रह्मा जी प्रकट होते हैं। दोनों के चरणों में शीश झुकाते हैं और स्तुति करते हैं।
ब्रह्मा के मुख से अपनी स्तुति सुनकर भगवान श्रीकृष्ण बेहद खुश होते हैं। तब ब्रह्मा जी उन्हें याद दिलाते हैं कि राधा और कृष्ण का स्नेह देखने के लिए उन्होंने ये सब किया था।
तबतक कहानी ने पुष्कर की तरफ मौड़ ले ली थी। क्या आप जानते हैं कि पुष्कर भगवान ब्रह्मा की नगरी है। और इसी पुष्कर में भगवान ब्रह्मा ने 60 हजार सालों तक श्रीकृष्ण और राधा के इस स्वरुप के दर्शन के लिए तप किया था।

ब्रह्मा ने कराई राधा-कृष्ण की शादी

भांडीर वन। माना जाता है कि राधा और कृष्ण की शादी कराने में ब्रह्मा जी का बड़ा योगदान था।
भगवान ब्रह्मा ने जब श्रीकृष्ण को सारी बातें याद दिलाईं तो उन्हें सबकुछ याद आ गया। इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपने हाथों से शादी के लिए वेदी को सजाया।
गर्ग संहिता के मुताबिक शादी से पहले उन्होंने श्रीकृष्ण और राधा से सात मंत्र पढ़वाए। भांडीर वन के वेदीनुमा वही पेड़ के नीचे जहां पर बैठकर राधा और कृष्ण ने शादी हुई थी।

भांडीर के पास है वंशी वन

भांडीर वन से श्रीकृष्ण की तमाम लीलाएं जुड़ी हैं। क्या आप जानते है कि भांडीर वन के पास ही है वो वंशी वन जहां भगवान कृष्ण अक्सर वंशी बजाने जाया करते थे।
कहा जाता है कि हजारों साल पुराना वंशी वन आज भी मौजूद है साथ ही वो वृक्ष भी मौजूद है जिसपर कृष्ण भग्वान बांसुरी बजाए करते थे।

कृष्ण को याद आया नंद गांव

नंद गांव। शादी के बाद काफी दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण राधा के साथ इन वनों में रास रचाते रहे। लेकिन एक दिन उन्हें नंद गांव की याद आई और वो राधा की गोद में वैसे ही बालक बन गए जैसे राधा को नंद जी ने दिया था।
इस घटना के बाद तो राधा रोने लगी। इसके बाद एक आकाश वाणी हुई। हे राधा इस वक्त शोक मत करो। अब तुम्हारा मनोरथ कुछ वक्त के बाद पूरा होगा।
राधा समझ गई कि भगवान अब अपने उस काम के लिए आगे बढ़ रहे हैं जिसके लिए उन्होंने अवतार लिया है। इसके बाद राधा भगवान श्रीकृष्ण के बालक रुप को गोद में लेकर नंद गांव गई और नंद के हाथों बाल गोपाल को समर्पित कर दिया।