Tuesday, 13 September 2011

एकमात्र प्रणय ने राधा को कृष्णमय बना दिया।

-मेरी दृष्टि में कृष्णा से राधा श्रेष्ठ हैं। कृष्ण गीता का उपदेश ढोये फिरते है। राधा ने ‘रामायण’ या ‘गीता’ के सहारे नहीं अपनाया कृष्ण को । राधा आदर्श की कायल नहीं हैं। इसलिए तो जीवन के यथार्थ में उन्होंने कृष्ण को एकाकार कर लिया। तर्क के द्वारा उनको मोहित करना उनका लक्ष्य नहीं रहा वही होकर उन्होंने कृष्ण को आत्मसात कर लिया। कृष्ण ऋषि-महर्षि की दृष्टि में महापुरुष हों, कर्मयोगी हों श्रंगारी-सहजमन, किंतु राधा में अकात्मता का भाव मात्र है। वह वहीं हो गयी हैं, उनके कृष्ण गुणों से अपने को आच्छादित नहीं किया । यों कहें कि कृष्ण राधा नहीं हो सकें, राधा कृष्ण हो गयीं । वह उनके अतिरिक्त किसी को नहीं जानतीं। तर्कशास्त्र, पुराण आदि में चर्चा चाहे जितनी बार की जाय, कृष्ण राधा से श्रेष्ठ नही सिद्ध किये जा सकते । सच तो यह है कि कृष्ण ने तर्कों का आश्रय लिया पर राधा ने किसी का नहीं। वह तो कृष्णमय हो गयीं तो, उसमें तर्क की गुंजाइश कहाँ ! राधा कृष्ण में खाली प्रेम नहीं है जैसे सीता–राम में । राधा को लौकिकता को भी संभावना पड़ा । आरंभ से ही अलग-थलग रहीं, उन्होंने कृष्ण से कुछ नहीं चाहा । यह भी नहीं कि वह उन्हीं के पास रहें। सच्ची बात तो यह है कि उन्हीं (कृष्ण) में तन्मय होने के कारण उनको अलग से जानने की जरूरत ही नहीं समझीं। स्वयं वही हो गयीं। राजनीति ने कृष्ण को भिन्न-भिन्न रूपों में बांटा, पर एकमात्र प्रणय ने राधा को कृष्णमय बना दिया।

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