Monday, 3 October 2011

गोविंद दामोदर स्तोत्र


  

गोविंद दामोदर स्तोत्र


अग्रे कुरूनाम् अथ पाण्डवानां दुःशासनेनाहृत वस्त्रकेशा ।
कृष्णा तदाक्रोशदनन्यनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ॥

जिस समय कौरव और पाण्डवोंके सामने भरी सभामें दुःशासनने द्रौपदीके वस्त्र और बालोंको पकडकर खींचा, उस समय जिसका कोई दूसरा नाथ नहीं ऐसी द्रौपदीने रोकर पुकारा – ‘ हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ ॥१॥

श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे ।
त्रायस्व माम् केशव लोकनाथ गोविंद दामोदर माधवेति ॥

‘हे श्रीकृष्ण ! हे विष्णो ! हे मधुकैटभको मारनेवाले ! हे भक्तोंके ऊपर अनुकम्पा करनेवाले ! हे भगवन्‌ ! हे मुरारे ! हे केशव ! हे लोकेश्वर ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो’ ॥२॥

विक्रेतुकाम अखिल गोपकन्या मुरारी पदार्पित चित्तवृत्त्यः ।
दध्योदकं मोहवसादवोचद् गोविंद दामोदर माधवेति ॥

जिनकी चित्तवृत्ति मुरारिके चरणकमलोंमे लगी हुई है, वे सभी गोपकन्याएँ दूध-दही बेचनेकी इच्छासे घरसे चलीं । उनका मन तो मुरारिके पास था; अतः प्रेमवश सुध-बुध भूल जानेके कारण ‘दही लो दही’ इसके स्थानपर जोर-जोरसे ‘गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! आदि पुकारने लगीं ॥३॥

जगधोय दत्तो नवनीत पिण्डः गृहे यशोदा विचिकित्सयानि ।
उवाच सत्यं वद हे मुरारे गोविंद दामोदर माधवेति ॥

जिह्वे रसाग्रे मधुरा प्रिया त्वं सत्यं हितं त्वं परमं वदामि ।
अवर्णयेत मधुराक्षराणि गोविंद दामोदर माधवेति ॥

गोविंद गोविंद हरे मुरारे गोविंद गोविंद मुकुंद कृष्ण ।
गोविंद गोविंद रथांगपाणे गोविंद दामोदर माधवेति ॥

सुखावसाने त्विदमेव सारं दुःखावसाने त्विदमेव गेयम् ।
देहावसाने त्विदमेव जप्यं गोविंद दामोदर माधवेति ॥

सुखके अन्तमें यही सार है, दुःखके अन्तमें यही गाने योग्य है और शरीरका अन्त होनेके समय भी यही मन्त्र जपने योग्य है, कौन-सा मन्त्र ? यही कि ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ ॥

वक्तुं समर्थोपि नवक्ति कश्चित् अहो जनानां व्यसनाभिमुख्यम् ।
जिह्वे पिबस्वमृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥


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